वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते हमें जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे-सुने जानेवाले पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता है। पता देने वाले हैं, दिल्ली के खुसरो मियाँ और तिरहुत के विद्यापति। इनके पहले की जो कुछ संदिग्ध, असंदिग्ध सामग्री मिलती है, उस पर प्राकृत की रूढ़ियों का थोड़ा या बहुत प्रभाव अवश्य पाया जाता है। लिखित साहित्य के रूप में ठीक बोलचाल की भाषा या जनसाधारण के बीच कहे-सुने जानेवाले गीत, पद्य आदि रक्षित रखने की ओर मानो किसी का ध्यान ही नहीं था। जैसे पुराना चावल ही बड़े आदमियों के खाने योग्य समझा जाता है वैसे ही अपने समय से कुछ पुरानी पड़ी हुई परंपरा के गौरव से युक्त भाषा ही पुस्तक रचनेवालों के व्यवहार योग्य समझी जाती थी। पश्चिम की बोलचाल, गीत, मुख प्रचलित पद्य आदि का नमूना जिस प्रकार हम खुसरो की कृति में पाते हैं, उसी प्रकार बहुत पूरब का नमूना विद्यापति की पदावली में। उसके पीछे फिर भक्तिकाल के कवियों ने प्रचलित देशभाषा और साहित्य के बीच पूरा-पूरा सामंजस्य घटित कर दिया।
8. खुसरो पृथ्वीराज की मृत्यु (संवत् 1249) के 90 वर्ष पीछे खुसरो ने संवत् 1340 के आसपास रचना आरंभ की। इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और कुतुबुद्दीन मुबारक शाह तक कई पठान बादशाहों का जमाना देखा था। ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकार और अपने समय के नामी कवि थे। इनकी मृत्यु संवत्1381 में हुई। ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार और सहृदय थे, इसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग के दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिलीं उसी ढंग के पद्य, पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उक्तिवैचित्रय की प्रधानता थी, यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।
यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि ‘काव्यभाषा’ का ढाँचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था। अत: जिन पश्चिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें भी जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी हुई रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है। इसी से खुसरो की हिन्दी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल, पहेलियों, मुकरियों और दो सखुनों में ही मिलती है यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रजभाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुख-प्रचलित काव्यभाषा ही है। यही ब्रजभाषापन देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रो. आजाद को यह भ्रम हुआ था कि ब्रजभाषा से खड़ी बोली (अर्थात् उसका अरबी-फारसी-ग्रस्त रूप उर्दू) निकल पड़ी।1
खुसरो के नाम पर संग्रहीत पहेलियों में कुछ प्रक्षिप्त और पीछे की जोड़ी पहेलियाँ भी मिल गई हैं, इसमें संदेह नहीं। उदाहरण के लिए हुक्केवाली पहेली लीजिए। इतिहासप्रसिद्ध बात है कि तंबाकू का प्रचार हिंदुस्तान में जहाँगीर के समय से हुआ। उसकी पहली गोदाम अंग्रेजों की सूरतवाली कोठी थी जिससे तंबाकू का एक नाम ही ‘सूरती’ या ‘सुरती’ पड़ गया। इसी प्रकार भाषा के संबंध में भी संदेह किया जा सकता है कि वह दीर्घ मुखपरंपरा के बीच कुछ बदल गई होगी, उसका पुरानापन कुछ निकल गया होगा। किसी अंश तक यह बात हो सकती है, पर साथ ही यह भी निश्चित है कि उसका ढाँचा कवियों और चारणों द्वारा व्यवहृत प्राकृत की रूढ़ियों से जकड़ी काव्यभाषा से भिन्न था। प्रश्न यह उठता है कि क्या उस समय तक भाषा घिसकर इतनी चिकनी हो गई थी जितनी पहेलियों में मिलती है।
खुसरो के प्राय: दो सौ वर्ष पीछे की लिखी जो कबीर की बानी की हस्तलिखित प्रति मिली है उसकी भाषा कुछ पंजाबी लिए राजस्थानी है, पर इसमें पुराने नमूने अधिक हैं जैसे सप्तमी विभक्ति के रूप में इ (घरि = घर में)। ‘चला’, ‘समाया’ के स्थान पर ‘चलिया’, ‘चल्या’, ‘समाइया’। ‘उनई आई’ के स्थान पर ‘उनमिवि आई’ (झुक आई) इत्यादि। यह बात कुछ उलझन की अवश्य है पर विचार करने पर यह अनुमान दृढ़ हो जाता है कि खुसरो के समय में ‘इट्ठ’, ‘बसिट्ठ’ आदि रूप ‘ईठ’ (इष्ट, इट्ठ, ईठ), बसीठ (विसृष्ट, बसिट्ठ, बिसिट्ट, बसीठ) हो गए थे। अत: पुराने प्रत्यय आदि भी बोलचाल से बहुत कुछ उठ गए थे। यदि ‘चलिया’, ‘मारिया’ आदि पुराने रूप रखें तो पहेलियों के छंद टूट जायंगे, अत: यही धारणा होती है कि खुसरो के समय बोलचाल की स्वाभाविक भाषा घिसकर बहुत कुछ उसी रूप में आ गई थी जिस रूप में खुसरो में मिलती है। कबीर की अपेक्षा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक था; उसी प्रकार जैसे अंग्रेजों का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक रहता है। खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरंजन था। पर कबीर धर्मोपदेशक थे, अत: उनकी बानी पोथियों की भाषा का सहारा कुछ-न-कुछ खुसरो की अपेक्षा अधिक लिए हुए है।
नीचे खुसरो की कुछ पहेलियाँ, दोहे और गीत दिए जाते हैं
एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा
चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे
(आकाश)
एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजडे में दिया
जों-जों साँप ताल को खाए। सूखे ताल साँप मर जाए
(दिया-बत्ती)
एक नार दो को ले बैठी। टेढ़ी होके बिल में पैठी
जिसके बैठे उसे सुहाय। खुसरो उसके बल-बल जाय
(पायजामा)
अरथ तो इसका बूझेगा। मुँह देखो तो सूझेगा
(दर्पण)
ऊपर के शब्दों में खड़ी बोली का कितना निखरा हुआ रूप है। अब इनके स्थान पर ब्रजभाषा के रूप देखिए
चूक भई कुछ वासों ऐसी। देस छोड़ भयो परदेसी
एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा ज्यों पानी।
चाम मास वाके नहिं नेक। हाड़-हाड़ में वाके छेद
मोहिं अचंभो आवत ऐसे। वामें जीव बसत है कैसे
अब नीचे के दोहे और गीत बिल्कुल ब्रजभाषा अर्थात् मुखप्रचलित काव्यभाषा में देखिए
उज्जल बरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है, निपट पाप की खान।
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एक रंग।
गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारै केस।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस।
मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल। कैसे गर दीनी बकस मोरी माल
सूनी सेज डरावन लागै, बिरहा अगिन मोहि डस-डस जाय।
हजरत निजामदीन चिस्ती जरजरीं बख्श पीर।
जोइ जोइ धयावैं तेइ तेइ फल पावैं,
मेरे मन की मुराद भर दीजै अमीर
जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिज्राँ न दारम, ऐ जाँ! न लेहु काहें लगाय छतियाँ
शबाने हिज्राँ दराज चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।
सखी! पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अंधेरी रतियाँ!
9. विद्यापति अपभ्रंश के अंतर्गत इनका उल्लेख हो चुका है। पर जिसकी रचना के कारण ये ‘मैथिलकोकिल’ कहलाए वह इनकी पदावली है। इन्होंने अपने समय की प्रचलित मैथिली भाषा का व्यवहार किया है। विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को ‘मागधी’ से निकली होने के कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषाशास्त्र की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती है, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली (वोकेब्युलरी) पर अवलंबित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू और हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।
खड़ी बोली, बांगडू, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, बैसवारी, अवधी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का परस्पर इतना भेद होते हुए भी सब हिन्दी के अंतर्गत मानी जाती हैं। इनके बोलने वाले एक-दूसरे की बोली समझते हैं। बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में ‘आयल-आइल’, ‘गयल-गइल’, ‘हमरा-तोहरा’ आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा हिन्दी के सिवा दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अत: जिस प्रकार हिन्दी साहित्य ‘बीसलदेवरासो’ पर अपना अधिकार रखता है उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।
विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। इन पदों की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गई हो। इनका माधुर्य अद्भुत है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना श्रृंगार काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्णभक्तों की परंपरा में न समझना चाहिए।
आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीतगोविंद’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। सूर आदि कृष्णभक्तों के श्रृंगारी पदों की भी ऐसे लोग आध्यात्मिक व्याख्या चाहते हैं। पता नहीं बाललीला के पदों का वे क्या करेंगे। इस संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि लीलाओं का कीर्तन कृष्णभक्ति का एक प्रधान अंग है। जिस रूप में लीलाएँ वर्णित हैं उसी रूप में उनका ग्रहण हुआ है और उसी रूप में वे गोलोक में नित्य मानी गई हैं, जहाँ वृन्दावन, यमुना, निकुंज, कंदब, सखा, गोपिकाएँ इत्यादि सब नित्य रूप में हैं। इन लीलाओं का दूसरा अर्थ निकालने की आवश्यकता नहीं।
विद्यापति संवत् 1460 में तिरहुत के राजा शिवसिंह के यहाँ वर्तमान थे। उनके दो पद नीचे दिए जाते हैं
सरस बसंत समय भल पावलि, दछिन पवन बह धीरे।
सपनहु रूप वचन इक भाषिय, मुख से दूरि करु चीरे
तोहर बदन सम चाँद होअथि नाहिं, कैयो जतन बिह केला।
कै बेरि काटि बनावल नव कै, तैयो तुलित नहिं भेला
लोचन तूअ कमल नहिं भै सक, से जग के नहिं जाने।
से फिरि जाय लुकैलन्ह जल महँ, पंकज निज अपमाने
भन विद्यापति सुनु बर जोवति, ई सम लछमि समाने।
राजा ‘सिवसिंह’ रूप नरायन, ‘लखिमा देइ’ प्रति भाने
कालि कहल पिय साँझहि रे, जाइबि मइ मारू देस।
मोए अभागिलि नहिं जानल रे, सँग जइतवँ जोगिनी बेस
हिरदय बड़ दारुन रे, पिया बिनु बिहरि न जाइ।
एक सयन सखि सूतल रे, अछल बलभ निसि भोर
न जानल कत खन तजि गेल रे, बिछुरल चकवा जोर।
सूनि सेज पिय सालइ रे, पिय बिनु घर मोए आजि
बिनति करहु सुसहेलिन रे, मोहि देहि अगिहर साजि।
विद्यापति कवि गावल रे, आवि मिलत पिय तोर।
‘लखिमा देइ’ बर नागर रे, राय सिवसिंह नहिं भोर
मोटे हिसाब से वीरगाथा काल महाराज हम्मीर के समय तक ही समझना चाहिए। उसके उपरांत मुसलमानों का साम्राज्य भारत में स्थिर हो गया और हिंदू राजाओं को न तो आपस में लड़ने का उतना उत्साह रहा, न मुसलमानों से। जनता की चित्तवृत्ति बदलने लगी और विचारधारा दूसरी ओर चली। मुसलमानों के न जमने तक तो उन्हें हटाकर अपने धर्म की रक्षा का वीर प्रयत्न होता रहा, पर मुसलमानों के जम जाने पर अपने धर्म के उस व्यापक और हृदयग्राह्य रूप के प्रचार की ओर ध्यान हुआ, जो सारी जनता को आकर्षित रखे और धर्म से विचलित न होने दे।
इस प्रकार स्थिति के साथ-ही-साथ भावों तथा विचारों में भी परिवर्तन हो गया। पर इससे यह न समझना चाहिए कि हम्मीर के पीछे किसी वीरकाव्य की रचना ही नहीं हुई। समय-समय पर इस प्रकार के अनेक काव्य लिखे गए। हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह भी रही कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप की जो काव्यसरिता वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मंद गति से बहने लगी, पर 900 वर्षों के हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सर्वथा सूखी हुई नहीं पाते।
संदर्भ
1. देखिए, मेरे, ‘बुद्ध चरित’ काव्य की भूमिका में ‘काव्यभाषा’ पर मेरा प्रबंध, जिसमें उसके स्वरूप का निर्णय किया गया है तथा ब्रज, अवधी और खड़ी बोली के भेद और प्रवृत्तियाँ निरूपित की गई हैं।