उत्तर-छायावादयुगीन साहित्य को प्रगतिवाद, प्रयोगवाद एवं नई कविता, इन तीनों में बाँटा गया है-
प्रगतिवादी काव्य का समय 1936 से 1943 ई. तक माना गया।
प्रयोगवादी काव्य का समय 1943 से 1953 ई. तक माना गया।
नई कविता का समय 1953 से वर्तमान तक माना गया।
प्रगतिवाद
जो विचारधारा राजनीति के क्षेत्र में साम्यवाद या माक्र्सवाद कहलाती है, वही साहित्यिक क्षेत्र में प्रगतिवाद के नाम से जानी जाती है। साम्यवादी विचारधारा के आधार पर समाज को शोषक और शोषित, दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।
साम्यवादी विचारक समाज में समता स्थापित करना चाहते है और यह चाहते है कि शोषण बन्द हो, इसलिए प्रगतिवादी कविता भी शोषण का विरोध करती है।
प्रगतिवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन, डाॅ. रांगेय राघव, त्रिलोचन शास्त्री, निराला, पन्त आदि। सन् 1936 में ’प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना हुई। प्रगतिवादी कविता व्यक्ति के निजी सुख-दुख, वेदना-निराशा से निकल कर जन-जीवन से जुड़ती है। उसमें न तो कल्पना की रंगीनी है और न जीवन से पलायन की प्रवृत्ति, बल्कि वह जमीनी यथार्थ से जुड़ी मनुष्य के संघर्ष और संकल्प की कविता है।
छायावादी कवि पन्त और निराला भी बाद में प्रगतिवादी विचारधारा से जुड़ गए। प्रगतिवादी कवियों के लिए नारी केवल सौन्दर्य की भोग्य वस्तु नहीं थी। यहाँ उसका भी स्वतन्त्र अस्तित्व माना गया है।
प्रगतिवादी कवियों ने समाज को शोषण, दमन और अन्याय से मुक्त करने के लिए संघर्ष और क्रान्ति का आह्वान किया। प्रगतिवादी काव्य-भाषा जनभाषा का ही सशक्त रूप है। उसमें न तो अलंकार की चिंता है न ही प्रतीक और बिम्ब विधान की। इसे लोकचेतला का काव्य कहा जा सकता है। सामाजिक यथार्थ के अन्तर्गत प्रकृति के रमणीय चित्र खींचने की बजाय नगर और ग्रामीण जीवन के नग्न यथार्थ रूप का इन कवियों ने चित्रण किया। प्रगतिवादी कवि ईश्वर की अपेक्षा मानवीय शक्ति पर असीम विश्वास रखता था।
प्रगतिवादी साहित्यकार की दृष्टि व्यक्ति, परिवार, स्वदेश तक सीमित न होकर सम्पूर्ण विश्व तक व्याप्त है। उसका स्वर मानवतावादी है। प्रगतिवादी साहित्य भावना और कल्पना की बारीकी की जगह बौद्धिकता और सामाजिक व्यंग्य दिखाई देता है।
प्रमुख रचनाएँ
इस विचारधारा से प्रेरित दिनकर की रचनाएँ कुरुक्षेत्र, उर्वशी, रेणुका, हुंकार, सामधेनी, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतिज्ञा, संस्कृति के चार अध्याय आदि है।
निराला कुकुरमुत्ता, नए पत्ते, गर्म-पकौड़ी, अणिमा, परिमल, अनामिका आदि काव्य ग्रंथ तथा अप्सरा, अलका, निरूपमा, चमेली (उपन्यास), सखी, चतुरी चमार, सुकुल की बीबी, लिली (कहानी संग्रह), कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा (रेखाचित्र), चाबुक, प्रबन्ध-परिचय (निबंध) आदि रचनाएँ है।
पन्त ज्योत्स्ना, युगवानी, ग्राम्या (काव्य ग्रंथ) आदि है।
केदारनाथ अग्रवाल फूल नहीं बोलते है, युग की गंगा, आग का आईना आदि है।
रामविलास शर्मा फुटकर कविताएँ।
नागार्जुन बादल को घिरते देखा है, पाषाणी, युगधारा, भस्मांकुर, प्यासी पथराई आँखें आदि। नागार्जुन का वास्तविक नाम ’वैद्यनाथ मिश्र’ था।
शिवमंगल सिंह ’सुमन’-जीवन के गान, प्रलय, सृजन, मिट्टी की बारात, वाणी की व्यथा, हिल्लोल आदि।
त्रिलोचन धरती, मैं उस जनपद का कवि हूँ।
रांगेय राघव मेधावी, पांचाली, राह के दीपक।
प्रयोगवाद
प्रयोगवाद का प्रारम्भ सन् 1943 में ’अज्ञेय’ द्वारा सम्पादित ’तार-सप्तक’ के प्रकाशन से माना जाता है। प्रयोगवादी कवि ’प्रयोग’ में विश्वास करते है। भाषा, शैली, उपमान, शिल्प आदि में नए-नए प्रयोगों से इस वाद को ’प्रयोगवाद’ कहा गया। अज्ञेय के अनुसार ’’प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है, वरन् वह साधन है।’’ प्रथम ’तार-सप्तक’ (1943 ई.) में मुक्तिबोध, नेमिचन्द जैन, भारत भूषण, गिरिजाकुमार माथुर, रामविलास शर्मा, प्रभाकर माचवे, अज्ञेय कवि थे। दूसरे ’तार-सप्तक’ (1951 ई.) में भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती थे। अज्ञेय ने प्रथम ’तार-सप्तक’ के कवियों को ’नई राहों के अन्वेषी’ कवि कहा।
प्रगतिवाद की अति सामाजिकता की प्रतिक्रियास्वरूप प्रयोगवदी कविता आत्मनिष्ठ या वैयक्तिक है। इसमें समाज की अपेक्षा व्यक्ति का महत्व अधिक है। जीवन के क्षण की सार्थकता, व्यक्ति की दमित कामवासना और कुण्ठाों को कवि ने वाणी दी। भावुकता की जगह बौद्धिकता का प्रभाव, धर्म और ईश्वर के प्रति अनास्था और व्यक्ति की कर्मशीलता को महत्व दिया। व्यक्ति के अदम्य जिजीविषा की कविता, व्यक्ति के दुख-दर्द की सघन पहचान हुई है।
प्रयोगवादी कवियों पर फ्राॅयड के मनोविश्लेषण सिद्धान्त का प्रभाव विशेष रूप से देखा गया। ’प्रयोगवाद’ के नामकरण की सार्थकता पर ’अज्ञेय’ का विचार-’’प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किया है, किसी एक काल में किसी विशेष दिशा में प्रयोग करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है।’’ प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ-वैयक्तिकता की प्रधानता, अति यथार्थवाद, कुण्ठा और निराशा, अति बौद्धिकता, भदेशपन (अनगढ़-विरूप) का चित्रण, विद्रोह का स्वर, व्यंग्य, सौन्दर्य के प्रति व्यापक दृष्टिकोण, उपमानों में नवीनता, दमित यौन-वाासना की अभिव्यक्ति, छन्दमुक्त-कविता, वैचित्र्य-प्रदर्शन आदि।
प्रमुख रचनाएँ
अज्ञेय अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार, द्वार, बावरा अहेरी, कितनी नावों में कितनी बार, हरी घास पर क्षण भर, इत्यलम्, इन्द्रधनुष रौंदे हुए से, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, चिन्ता, पूर्वा, सुनहरे शैवाल, भग्नदत आदि काव्य रचनाएँ। विपथगा, परम्परा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल (कहानी), शेखर: एक जीवनी, अपने-अपने अजनबी, नदी के द्वीप (उपन्यास), त्रिशंकु, आत्मनेपद (निबंध), आधुनिक हिंदी साहित्य, तार-सप्तक (सम्पादन)।
मुक्तिबोध चाँद का मुँह टेढ़ा, भूरी-भूरी खाक धूल, तार सप्तक में संकलित कविताएँ (काव्य), काठ का सपना (कहानी-संग्रह), विपात्र (उपन्यास), उर्वशी दर्शन और काव्य (समीक्षा)। प्रयोगवाद सीमित समय में ही हिन्दी कविता का महत्वपूर्ण पड़ाव सिद्ध हुआ। बाद में यही काव्यधारा ’नई कविता’ के रूप में समाने आई।
नई कविता
सन् 1954 से आज तक की कविता को हिंदी काव्य-जगत में ’नई कविता’ के नाम से जाना गया। ’नई’ शब्द हिंदी कविता के क्षेत्र में सन् 1950 के आस-पास प्रयोगवाद के विरुद्ध आंदोलन का द्योतन करता है। सन् 1954 में डाॅ. जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी के सम्पादन में प्रकाशित ’नई कविता’ पत्रिका से पहली बार इसका आगाज हुआ। ऐतिहासिक दृष्टि से ’दूसरे तार-सप्तक’ (1951) के बाद की कविता को ’नई कविता’ कहा जा सकता है। रामविलास शर्मा ने इसे ’सूक्ष्म के प्रति अति सूक्ष्म का विद्रोह’ कहा। डाॅ. जगदीश गुप्त ने लिखा- ’’नई कविता प्रगतिवादी यथार्थ के आघात से उत्पन्न छायावाद के स्वप्न भंग के बाद की कविता है।’’
नई कविता को ’अकविता’, ’भूखी पीढ़ी की कविता, ’अस्वीकृत कविता’ आदि नाम भी दिए गए। नई कविता को ’कल्पना’, ’ज्ञानोदय’ आदि पत्रिकाओं ने आगे बढ़ाया। ’नई कविता’ के कवियों में जगदीश गुप्त, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, भवानी प्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, शमशेर भारती, भवानी प्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, शमशेर बहादुर सिंह, कुँवरनारायण, विजयदेव नारायणशाही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, नागार्जुन, मुद्राराक्षस, मुक्तिबोध, श्रीराम वर्मा, गिरिजाकुमार माथुर, रघुवीर सहाय, कीर्ति चैधरी आदि प्रमुख है।
नई कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
अहं या अतिवैयक्तिकता की प्रधानता, घोर यथार्थवाद, यौन भावनाओं का खुला चित्रण, बौद्धिकता की प्रबलता, लघुता की ओर दृष्टिपात, आस्था-अनास्था एवं क्षण बोध, वैचित्र्य-प्रदर्शन की भावना, लघु मानववाद, तीक्ष्ण व्यंग्य, भाषा एवं छन्दों में नवीनता, नवीन बिम्ब, प्रतीक एवं उपमान-योजना।
साठोत्तरी कविता
आलोचकों ने ’नई कविता’ में सन् 1962 के बाद की कविता को ’साठोत्तरी कविता’ नया नाम दिया। 1960 ई. के बाद अस्वीकृत साहित्य का उदय हुआ। विरोध की कविता का आंदोलन चला। इसे ’आत्मसाक्षात्कार की कविता’ भी कहा गया। इस ’साठोत्तरी कविता’ को विभिन्न नाम दिए गए- सनातनी सूर्योदयी कविता, सीमान्त कविता को विभिन्न नाम दिये गए- सनातनी सूर्योदयी कविता, सीमान्त कविता, युयुत्सवादी कविता, दुत्कार कविता, समाहारात्मक कविता, अगली कविता, विद्रोही कविता, प्राप्त कविता।
वर्ण्य-विषय इस कविता में अधिकांशतः नंगेपन, टुच्चेपन, फूहड़पन, लिजलिजेपन की अभिव्यक्ति हुई।
इस नए वर्ग में कैलाश वाजपेयी, शकुन्तला माथुर, अजीत कुमार, विपिन कुमार अग्रवाल आदि के साथ पूर्ववर्ती प्रयोगवादी कवि भी नए विषयों के साथ कविता करते देखे जाते है।
कवि एवं काव्य
धर्मवीर भारती (ठण्डा लोहा, कनुप्रिया, सात गीत वर्ष)
भवानी प्रसाद मिश्र (गीत फरोश, सन्नाटा, सतपुड़ा के जंगल)
शमशेर बहादुर (कुछ कविताएँ, कुछ और कविताएँ, चुका भी नहीं हूँ मैं)
रघुवीर सहाय (सीढ़ियों पर धूप आत्महत्या के विरुद्ध, लोग भूल गए है, हँसो-हँसो जल्दी हँसो)
सर्वेश्वर दयाल (काठ की घण्टियाँ, बाँस का पुल, एक सूनी नाव, खूँटियों पर टँगे लोग)
कुँवर नारायण (चक्रव्यूह, हम तुम, आत्मजयी)
धूमिल (संसद से सड़क तक)
जगदीश गुप्त (नाव के पाँव, शब्द दंश, युग्म, गोपा गौतम, बोधिवृक्ष शम्बूक)
नरेश मेहता (महान प्रस्थान, प्रवाद पर्व, शबरी, प्रार्थना-पुरुष, तुम मेरा मौन हो)
उत्तर छायावादी महत्वपूर्ण तथ्य
उत्तर छायावादी साहित्य प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता।
प्रगतिवाद का समय 1936 ई. से 1943 ई. तक प्रयोगवाद का समय 1943 ई. तक, नई कविता सन् 1953 से अब तक।
राजनीति में साम्यवाद और साहित्य में प्रगतिवाद एक ही है।
प्रगतिवादी कवि दिनकर, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, शिवमंगल सिंह ’सुमन’, रांगेय राघव, त्रिलोचन शास्त्री, निराला, पन्त आदि।
सन् 1936 में ’प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना हुई।
प्रगतिवाद में व्यक्ति के निजी सुख-दुख से निकलकर कविता सामान्य जनजीवन से जुड़ी।
प्रगतिवादी कवियों ने नारी को भोग्या नहीं, स्वतन्त्र अस्तित्व की अधिकारिणी माना।
कुरुक्षेत्र, उर्वशी, रेणुका, हुँकार, रश्मिरथी, कुकुरमुत्ता, परिमल, अनिामिका, ज्योत्स्ना, युगवाणी, ग्राम्या, फूल नहीं बोलते, आग का आईना, पाषाणी, युगधारा, भस्माकुर, जीवन के गान, प्रलय-सृजन, धरती, मेधावी, राह के दीपक।
नागार्जुन ’दीपक’ पत्रिका के सम्पादक थे।
केदारनाथ अग्रवाल पेशे से वकील थे, साम्यवाद में आस्था।
शिवमंगल सिंह ’सुमन’ गाँधी की अपेक्षा माक्र्स के समर्थक थे।
प्रयोगवाद का प्रारम्भ 1943 ई. में अज्ञेय के ’तार-सप्तक’ से हुआ।
प्रथम तार-सप्तक के कवि- मुक्तिबोध, नेमिचन्द जैन, भारत-भूषण, गिरिजाकुमार माथुर, रामविलास शर्मा, प्रभाकर माचवे, अज्ञेय-।। प्रकाशन वर्ष-1943
दूसरा तार-सप्तक के कवि- भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती।
1954 ई. से आज तक की कविता ’नई कविता’ कहलायी।
1954 ई. में डाॅ. जगदीश गुप्त रामस्वरूप चतुर्वेदी की ’नई कविता’ पत्रिका से नई कविता का आगाज।
रामविलास शर्मा ने ’सूक्ष्म के प्रति अति सूक्ष्म के विद्रोह’ को नई कविता कहा।
1962 ई. के बाद की कविता को ’साठोत्तरी कविता’ कहा गया।
साठोत्तरी कविता को सनातनी सूर्योदयी कविता, सीमान्त कविता, युयुत्सवादी कविता, दुत्कार कविता, समाहारात्मक कविता, विद्रोही कविता, अगली पीढ़ी की कविता नाम दिये गए।
साठोत्तरी कविता में वण्र्य-विषय- नंगापन, टुच्चापन, फूहड़पन, लिजलिजापन।
साठोत्तरी कविता के कवि- कैलाश वाजपेयी, शकुन्तला माथुर, अजीत कुमार, विपिन अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, धूमिल, जगदीश गुप्त, नरेश मेहता।